फांसी की सजा को रोकने के लिए दलील पर बहस
निर्भया के गुनाहगारों की फांसी पर कानूनी कार्यवाही के लिए पेश किये गये कानूनी दांवपेचों में उलझती सजा-ए-मौत
पाक्सो एक्ट एमेन्डमेन्ट बिल 1919 के अन्र्तगत नाबालिग बेटियो से बलात्कार करने पर 20 वर्ष की सजा या फांसी का प्रावधान किया गया है। 20 दिसम्बर की रात मे दिल्ली की चलती बस में निभर्या के साथ बस में सवार चालक गेटकीपर व उनके साथियों द्वारा किये गये जघन्य दुष्कर्म व हत्या का अपराध है। आखिरकार काफी जद्दोजहद के बात 8 साल 20 मार्च 2020 को निर्भया के गुनागारों को फांसी दे दे गयी तथा क्रूरता कीपरिकाष्ठा करनेकीपरिकाष्ठा करने वालो का अन्त हो गया।
भारत में पाक्सों एक्ट के तहत दुुष्कर्म के अपराधियो को सजा देने में देरी के कारण व्यक्ति को इससे बच निकलने में सफलता मिल जाती है। प्रयुक्त केस में निर्भया के गुनाहगारों को फांसी देने में उसके बचाव पक्ष में खड़े वकील कानूनी दांवपेंचों में उलझा कर इस सजा के देने मेे देर कर रहे थे।
फांसी की सजा को रोकने के लिए दलील पर बहस
अब हम फांसी की सजा पर होने वाली देरी के बारे में विचार करते है।
कानून में यह स्पष्ट संकेत देता है कि चाहे 100 गुनाहगार छूट जायें किंतु किसी निर्दाष को सजा न दी जाये। आरोपीयों को अपने पक्ष अपनी आवाज रखने का पूर्ण अधिकार है। उसे बचाव पक्ष के वकील द्वारा कानूनी सहायता प्रदान की जाती है। इन प्रावधानों के कारण निचली उपरी अदालत मेे अपने पक्ष को रखने आठ साल का समय निकल गया था। इन लोगो का कहना है कि फांसी देना ही है तो उन्हेे कानून से मिले अधिकारों को पूरा करने कमे हर्ज ही क्या है।
निर्भया केस में बचाव पक्ष के वकीलों द्वारा सजा दिये जाने के बाद कुछ कानूनी खामियों का फायदा उठाकर सजा देने में देरी हो रही थी।
मानव-अधिकार कार्यकर्ता फांसी की सजा को बंद करने के पक्ष में मुखर है।
फांसी की सजा को अनुच्छेद की धारा 21का उल्लंघन करते है। जबकि फांसी की सजा देने के लिए अनुच्छेद की धारा 14 का उल्लेख किया गया है। जिसमें जुर्म की सजा दुर्लभतम से दुर्लभतम है तो फांसी दी जा सकती है ।जब अपराध की श्रेणी बलात्कार हत्या या देशद्रोह की हो। अब प्रश्न यह उठता है कि सजा को देना चाहिए या इसको खत्म कर देना चाहिए।
सुप्रीम र्कोट की वकील इन्दिरा जय सिंह ने र्निभया की मां से यह अनुरोध किया था कि निर्भया के आरोपियों को माफ कर दिया जायें। बताइये यह कहां का इंसाफ है कि निर्भया के मां-बाप अपनी बच्ची के कातिलो को सजा दिलाने के पक्ष में हैं, वे आठ साल से निर्भया के के आरोपियों को फांसी दिलाने के लिए उच्च र्कोट व सुप्रीम कोर्ट के चक्कर लगा रहे थे। लेकिन अभी भी उसके कातिल जिंदा थे।
विश्व के मानव अधिकार संगठन के कुछ लोग फांसी की सजा देने के खिलाफ अपनी अवाज उठातें हैै। उनका कहना है कि जब हम जीवन दे नहीं सकते तो जीवन लेने का अधिकार नही है। उनका यह भी मानना है कि जब किसी व्यक्ति ने कोई जघन्य किया है तो क्या उसके अपराध को उसी तरह उसको फांसी देकर एक और अपराध नही कर रहे है।
मृत्यु दण्ड क्या हैं। मृत्यु दण्ड के पक्ष व विपक्ष में दिये गये तर्क
कुछ देशों में फांसी की सजा को प्रतिबधिंत किया है। तथा उन्हें एक बार प्रायश्चित का मौका देना चाहिए। हमारे देश में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को माफ करने पर बहस चल रही है। फिलहाल में वर्तमान समय में जेल मे सजा काट रहें है।
किंतु यहां पर कुछ लोगों का मानना है कि यदि जघन्य अपराधो पर फांसी की सजा नहीं दी जायेगी तब वे पुन हिंसक अपराधो मे लिप्त होगे। इस सजा के डर से अन्य लोगो में भी आगे से अपराध करने पर खौफ उत्पन्न होगा। दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ती हेमन्त गुप्ता ने दुर्लभतम मामले में मृत्युदण्ड दिये जाने के पक्षधर है।
अनुच्छेद 14 निहित कानून के समक्ष समानता तथा समान संरक्षण के अधिकार को सर्वाेपरी रखते हुए जघन्य अपराधी व्यक्ति को, तथा समाज में ऐसे अपराधों को रोकने के लिए तथा इसकी पुनारावृत्ति रोकने के लिए न्यायपालिका मृत्युदण्ड अपनाती है।
प्रतिशोध व प्रतिरोध व सामाजिक एकात्मकता के हत्यारे, देशद्रोह जैसे गंभीर अपराध रोके जा सकते है।
विपक्ष
मानव जीवन के प्रति लोगोे के सम्मान को कम कर सकता है। मानवाधिकार संगठन कहता है कि हिंसक विचार के विरोध में महात्मा गांधी भी थे।
मृत्युदण्ड अनुच्छेद 21 के निहित जीवन जीने की स्वतंत्रता का उल्लंघन है।
विश्व के अन्य भागों में मृत्यु दण्डनीदर लैड स्वीटजरलैंड स्वीडन डेनमार्क पुर्तगाल इंगलैड में पूर्णतः समाप्त हैै। हांलाकि कई देश मृत्युदण्ड समाप्त कर चुके हैं। आस्टीया, रूमानिया तथा जर्मनी ऐसे देश हैं जहां मृत्युदण्ड एक बार हटाकर पुनः लगा दिया गया।
भारत चीन तथा जर्मनी, इडोनशिया, ईरान, इराक मयंमार पाकिस्तान तथा अमेरिका के 13 राज्यों में प्रचलित है।
एकल खंडपीठ ने अपने विचार प्रस्तुत किए है स्वतंत्रता पर कानून यह उल्लेख नही है कि किन परिस्थतियों में यह सजा दिया जाये यह न्यायाधीशों के विशेषाधिकार दिया गया है न की मनमर्जी से लेता हैै।
0 comments:
Post a Comment