अति भौतिकता से अध्यात्मिकता की ओर बढ़ते कदम

 अति भौतिकता से अध्यात्मिकता की ओर बढ़ते कदम

        आज का युवा पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण हर भौतिक प्राप्य वस्तु को अपने धन-बल व कर्मठता से अपने पास एकत्रित कर लेता है। वह कुछ समय तक आनन्द की स्थिति में रहता है किन्तु जैसे-जैसे व्यक्ति अपनी मध्य आयु की तरफ कदम रखता है तब उसे इन सब वस्तुओं से कोई मानसिक सकून नही मिल पाता। उसके द्वारा कठिन परिश्रम व पुरूषार्थ से एकत्र की गयी सम्पत्ति उसे मानसिक संतोष नही दे पाती तथा उसके अन्दर एक उदासीनता का भाव उत्पन्न होता है। 

अति भौतिकता से अध्यात्मिकता की ओर बढ़ते कदम
अति भौतिकता से अध्यात्मिकता की ओर बढ़ते कदम

      इसी उहापोह की स्थिति में शान्ती व संतोष की खोज में भारतीय  संस्कृति व अध्यात्म की ओर आकर्षित होता है। वह सब-कुछ छोड़कर विरक्त भाव से अध्यात्म व स्वयं की खोज में बड़े-बड़े साधु-सन्तों के सम्पर्क में आता है तथा भारतीय अध्यात्म को समझने का प्रयास करता हैै तथा उसे आत्मसात करते हुए भारतीय परम्परा व मान्यता की ओर रूझान बढ़ता है। 

    पश्चिमी देशो के लोग भी यहां पर  भौतिकता की गिरफत से स्वयं को दूर कर शान्ति की खोज में भारतीय संस्कृति का अध्ययन करते है। यहां में मन्दिरों व मठो में विदेशी घूमते दिखायी देते है तथा स्वेच्छा से हिन्दू-संस्कृति अपनाने का प्रयास करते है। भारतीय संस्कृति में ब्रह्म्  सत्य जगत मिथ्या के सिद्धान्त पर आधारित है। 

   भारतीय संस्कृति में जड़-चेतन सभी में हम ईश्वर या परम-ब्रह्म्  परम-शक्ति के रूप में देखते है। वसुधैव-कुटुम्बकम् की अवधारणा पर विश्वास करते है। अर्थात सारा विश्व ही हमारा परिवार है। हम सब मनुष्यों व पशु-पक्षियों में ईश्वर का रूप देखते है। ईश्वर सत्य व जगत मिथ्या अर्थात मोह-माया के अलावा कुछ नही है। हम यहां पर अग्नि, जल, वायु,आकाश व पृथ्वी को देवता मानते है तथा उनको पूजते है। हम यहां पर दिये गये कर्मो को करते हुए परम- ब्रह्म् में लीन होना चाहते है। परम-शक्ति से सानिध्य चाहते हैं।

     यहां के धार्मिक तीर्थ-स्थलों  जैसे काशी, मथुरा वृन्दावन में लोगो की भारी संख्या में दर्शन करते देखे जा सकते है। आज धार्मिक सन्त जैसे श्री श्री रविशंकर, सदगुरू जग्गी वासुदेव आदि अनेक आश्रमों में लोग उनके प्रवचनो को आत्मसात करने का प्रयास करते है। यहां के इस्कान टेम्पल में बड़े-बड़े पदो में सुशोभित इंजीनियर, डाक्टर, व अन्य बुद्धिजीवी भी इस संस्था से जुड़कर परमार्थ के मार्ग पर जुड़ जाते है।

        इस संसार मेें प्राप्त हर सुख दुख में ईश्वर की कृपा को देखते हैं तथा ऐसा विश्वास रखते हैं कि परम-पिता जल्द की हमारे दुखो का अन्त करेगा। अगर हम दुख में इस तरह का विचार नही रखेगेे हम अपने अन्दर इतने असंतोष के चक्रव्यूह में डूब जायेगे कि उससे निकलना मुश्किल हो जायेगा। भारतीय संस्कृति में हमें यही सिखाया जाता है  ईश्वर जो करता है वह अच्छा ही करता है तथा वह ही हमें इस भव सागर से पार ले जायेगा। 

    इसका एक अच्छा उदाहरण कोरोना काल की वैश्विक महामारी मेें देखने को मिलता है। इस महामारी की लहर में हर कोई आंशकित था कि कल क्या होगा क्या हम इस महामारी की चपेट में आ जायेगे। तथा इस समय बहुत से लोग डर के कारण डिप्रेशन में चले गये। किन्तु जिन लोगो पर ईश्वर पर विश्वास था वे कहते थे कि हर व्यक्ति को परम-पिता ने निश्चित सांसे दी है अगर हमारी सांसे पूरी हो गयी होगी तब हम चले जायेगे इसमें परेशानी या डिप्रेशन की क्या बात है। यही विश्वास ही लोगों को बड़ी से बड़ी परेशानी से निकलने में सहायक है।अध्यात्मिकता व भौतिकता का अनूठा संगम ही युवाओं को नयी उंचाईयों में ले जाने में सक्षम है। 








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Hi. I’m Madhu Parmarthi. I’m a free lance writer. I write blog articles in Hindi. I write on various contemporary social issues, current affairs, environmental issues, lifestyle etc. .

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1 comments:

Anonymous said...

Nice written