युवा जनमानस में घुसपैठ करता मानसिक विकार: अवसाद


युवा जनमानस में घुसपैठ करता मानसिक विकार: अवसाद

       अति भौतिकवादी युग में मानव मन अपने जीवन की अति महत्वांकाक्षी लक्ष्य को प्राप्त करते हुए अपने स्वयं के लिए ही समय नहीं निकाल पाता। भाग-दौड़ पूर्ण जिन्दगी, एकल परिवार में रचे-बसा युवा, समाज, पास-पड़ोस वह सामाजिक गतिविधियों में भाग नहीं ले पाते। धीरे-धीरे एकरसता से जिन्दगी बोझिल हो जाती है तथा उनमें अकेलेपन का भाव उत्पन्न होती है। यह विचार किसी भी आयु वय, महिला, पुरूष, बच्चे को अपने गिरफ्त में ले लेता है। यह नकारात्मक विचार ही उनमें अवसाद की स्थिति उत्पन्न करते हैं। हर मनुष्य के  समय में किसी न किसी समय दुःख की स्थिति उत्पन्न होती है किन्तुवह इस क्षणिक स्थिति में स्वयं को निकलने में समर्थ हो जाते हैं। यह एक मानसिक दशा है जो स्वयं के द्वारा ही पैदा की जाती है। 

युवा जनमानस में घुसपैठ करता मानसिक विकार: अवसाद
युवा जनमानस में घुसपैठ करता मानसिक विकार: अवसाद

        मानसिक विकार या अवसाद यह सदियों से चली आ रही है। 21वीं शताब्दी में इसका प्रभाव दस प्रतिशत ज्यादा बढ़ गया है। वल्र्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन की रिपोर्ट 2015 के अनुसार भारत में करीब पाँच करोड़ लोग मानसिक रोगी थे। यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि करीब-करीब तीन करोड़ अस्सी लाख लोग, जो तनाव, घबड़ाहट और बेचैनी के शिकार है, वे यदि अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए निराशावादी सोच को हावी होने देंगे तो कालान्तर में वह अवसाद के गर्त में डूब जायेंगे। पूरी दुनिया में लगभग 78 प्रतिशत आत्महत्या होती है जिसमें 50 प्रतिशत भारत में होती है। इसी बीमारी के मद्देनजर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 7 अपै्रल को मनाये ‘विश्व स्वास्थ्य दिवस’ की थीम अवसाद पर रखी है।

       आधुनिक युग में दुःख व तनाव के लक्षण करीब-करीब सभी मानव में परिलक्षित होते हैं। किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जुनून की हद तक मेहनत करने के बाद भी अगर वह हासिल नहीं हो पाता तब तनाव, क्रोध व उदासीनता का जन्म होता है। जब नकारात्मक विचार का लगातार मंथन होता रहा है। तो व्यक्ति स्वयं को उदासीन अवस्था में परिवर्तित कर लेता है। वह भूतकाल में रहता है तथा अपनी वर्तमान स्थिति से असंतुष्ट रहता है, भविष्य के लिए चिन्तित रहता है। यह विचार जब ज्यादा बढ़ जाते हैं तो व्यक्ति की दैनिक दिनचर्या भी प्रभावित होती है। उसे स्वयंका ध्यान नहीं रहता, चुपचाप बैठना, किसी में मिलना-जुलना नहीं, किसी काम में मन नहीं लगना व अत्यधिक क्रोध में किसी भी सीमा को लांघकर आत्महत्या करने के विचार आते हैं, वहीं दूसरी ओर अवसाद की स्थिति में शरीर में रसायनिक परिवर्तन भी उत्पन्न होते हैं। यह अनुवांशिक भी हो सकते हैं। यहाँ पर हम मनोचिकित्सक द्वारा विचार-विमर्श करके तथा औषधियों का प्रयोग करके इस समस्या को दूर किया जा सकता है। कुछ हद तक औषधियों के इस समस्या की उग्रता को कम किया जा सकता है। इस समस्या को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक परामर्शदाताओं की सलाह से व्यक्ति के अचेतन मन में दबी हुई गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास किया जाता है।  इस समस्या के निदान में आपका स्वयं का सहयोग और दृढ़ संकल्प भी इस समस्या से निकलने में सहायक है। यहीं पर इसके उत्पन्न होने के सामाजिक और व्यवहारिक पहलू पर विचार करते हैं-

1. मशीनी युग में संयुक्त परिवार के विघटन तथा एकल परिवार में रहते हुए किसी से अपने दुःख को बाँटने की प्रवृत्ति नहीं रहती जिसमें उनमें नकारात्मक विचार हावी रहते हैं।

2. कार्यस्थल पर अत्यधिक तनाव व लक्ष्य को पूरा करने की प्रतिबद्धता नकारात्मक सोच को जन्म देती है। पारिवारिक झगड़े व कमजोर व्यंिक्तत्व भी निराशा को जन्म देते हैं।

3. प्रियजनों के विछोह से भी यह प्रवृत्ति जन्म लेती है। गम्भीर शारीरिक बीमारी से जूझते हुए व्यक्ति पर नकारात्मक सोच हावी हो जाती है। कभी-कभी आनुवांशिक कारण भी इसके लिए उत्तरदायी होते हैं। हार्मोनल असन्तुलन से भी इसके लक्षण प्रकट होते हैं।

अब हम इस समस्या के समाधान में उठाये गये छोटे-छोटे महत्वपूर्ण कदमों की ओर हम ध्यान केन्द्रित करना चाहते हैं-

1. जीवन के प्रति सकारात्मक सोच को उत्पन्न करना चाहिए व आशावादी सोच के साथ भविष्य के सुनहरे सपने देखने चाहिए। नियमित रूप से योग-ध्यान-व्यायाम व सुबह की सैर में निकलना चाहिए। ‘ओम’ के उच्चारण द्वारा मन को एकाग्र करने की कोशिश करें।

2. प्रकृतिप्रदत्त सौन्दर्य को निखारना, कलियों का मुस्कुराना, चिड़ियों का चहचहाना व शीतल व्यार में आनन्द लेना चाहिए। भौरों की गुंजन, उगते सूर्य की इन्द्रधनुषी सौन्दर्य को निहारना चाहिए।

3. पारिवारिक सहयोग तथा सेवाभाव व प्यार-दुलार से उनके अकेलेपन को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। उनमें आत्मविश्वास और मनोबल को बढ़ाने के लिए उनमंे गुणों की प्रशंसा करनी चाहिए तथा उन्हें समाज की मुख्यधारा में जोड़ने का प्रयास करना चाहिए।

4. स्वयं को व्यस्त रखने के लिए रूचि के अनुसार रचनात्मक कार्यों को करना चाहिए जैसे संगीत, कला, नृत्य आदि में अपने को आनन्द का अनुभव करना चाहिए। किसी भी सार्वजनिक स्थल पर बैठकर अपने हमउम्र लोगों के साथ राजनीति, मनोरंजन व खेलकूद आदि पर विचार-विमर्श करना चाहिए।

5. समाजिक गतिविधियों, लोक कल्याण के कार्य करना, प्रेरक व्यक्तियों की जीवनियों को पढ़ना व हंसने-हसाने की प्रवृत्ति पर बल देना चाहिए।

     नकारात्मक सोच से बाहर आने के लिए उठाये गये छोटे-छोटे कदम ही इस समस्या को जड़मूल से समाप्त करने में पूर्ण सक्षम है। जीवन एक बहुमूल्य निधि है। सकारात्मक सोच व आशावादी प्रवृत्ति इसमें उत्पन्न बड़ी से बड़़ी परेशानी को शमन करते हए खुशहाल जिन्दगी का संकल्प लेना चाहिए। छोटी-छोटी परेशानियों से जिन्दगी समाप्त नहीं होती। रात कितनी भी गहरी क्यों न हो आखिर सुबह का सूरज तो निकलता ही है, नई सोच और नई उमंग से जिन्दगी को पुनः सम्भालना चाहिए। तब ही हमारा युवा देश विश्व-गुरू बनने की क्षमता का प्रबल दावेदार होगा। ........

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Hi. I’m Madhu Parmarthi. I’m a free lance writer. I write blog articles in Hindi. I write on various contemporary social issues, current affairs, environmental issues, lifestyle etc. .

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5 comments:

Archita Srivastava said...

Truely said 👍

Shikha Srivastava said...

Well said

Shalini Khare said...

Well said!!

Anonymous said...

Well said

Anonymous said...

very nicely expressed ....